Sunday, September 13, 2015

शीर्षक -उधेड़बुन 
पल-छिन , पल -छिन  बीतता  है दिन ,
दिन व दिन  बीतता  है दिन। 
तू चाहे तो भी ,
और न चाहे  तो भी ,
अतुल कुमार मिश्रा
दिन को बीतना  है , बीतता है दिन ,
तू क्यों थकता  है ,
तू क्यों रुकता है ,
पल भर ही हंसी -ख़ुशी है ,
पल भर ही दुःख की घड़ी  है, 
घड़ी घड़ी कर बीतता  दिन ,
पल-छिन , पल -छिन  बीतता  है दिन ,
दिन व दिन  बीतता  है दिन। 
पल में कुदरत की मेहर है ,
पल में काल का कहर है ,
जो वर्तमान  की बाती है ,
वो कल  भूत की  थाती है, 
भविष्य की आशंकाओं  को ,
क्यों रहा है ----गिन ,
पल-छिन , पल -छिन  बीतता  है दिन ,
दिन व दिन  बीतता  है दिन। 
दिन व दिन की कीमत , कहाँ कर छुपी है ,
ये बात , कब तूने  समझी  है ,
कब खुद से कही है ,
दिनों की दूरी  में ---------
एक दिन को जन्मा , एक दिन को मरेगा ,
क्या आशय है तेरा , किस धारणा को धरेगा ,
या सांसो  की रवानगी को ,
रहता रहेगा बस-------गिन ,
पल-छिन , पल -छिन  बीतता  है दिन ,
दिन व दिन  बीतता  है दिन । 
        ********
radhaswami !

No comments:

Post a Comment