Thursday, October 1, 2015

धरम की धारणा
धरम की धारणा ने धरण ये धार लिया है,
कि ------ तेरा “तू” है,
और ----- मेरा “मैं” है,
जबकि होना यह था,
कि ------ न तेरा “तू” है,
और ----- न मेरा “मैं” है,
जिधर, देखो उधर विभ्रम है,
अरे भ्रम को निकालना ही तो धरम है,
जो धारणा थी, शांत-चित्त स्थिर हो बैठने की,
“आपे” को खोजने की,                                                   
अंतर मे पैठने की,
लेकिन,   
भुलावा, बहिर्मुखता लिए बैठा है,
अशांत चित्त, अस्थिर मन-बुद्धि
और आपस का झगड़ा, सारी कहानी कहता है,
अरे, ईश्वर “एक” है,
“एक” होने में ही शांति है, स्थिरता है,
उस “एक” को ही तो ढूंढना है,
इसीलिए तो शांत होना है,
स्थिर होना है,
और अंतर में पैठना है,
“निजता” को पाना है, “निजघर” पहुँचना है,
इस “धारणा” का धरण ही तो धरम है,
“धर-मम” इसमें कैसा भरम है |
राधास्वामी, अतुल कुमार मिश्रा,
मोबाइल 9460515371
369, कृष्णा नगर, भरतपुर, राजस्थान -321001

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