Friday, May 21, 2010

ये दौर

काल चक्र से बंधे,  बंधे-बंधे जी रहे |
न जानते,  अनायास ही काल त्राण भोग रहे ||
गति खोकर, मति खोकर
भोग की अभिलिप्सा में,  आत्मोउदभव अनुभूति खोकर,
दयापात्र देखो तो, स्वयं विनाश बीज बो रहे ||
अज्ञानता या अनजानना,
बीज बबूल से बबूल ही उपजना,
तात्क्षणिक सुखबोध की उपलब्धि  यह  कैसी ,
प्रकाशपुंज  सूर्य  से तम  अभिवृद्धि  यह कैसी, 
धर्म रहित  प्राण  ये,  मात्र पशुता ढ़ो रहे,
या 
कर्म- फल  के साये  तले, निर्बुद्धि बस बह रहे ||
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अतुल, राधास्वामी !

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