Wednesday, June 2, 2010

सामर्थ्य की ओर

सब मेट दिया जाता क्षण में, काल ग्रास जब लेता है |
मैं मेट सकूँ यह जगत वासना, मन पुनि-पुनि सोच विचरता है |
धारा बहती वो रीती है, प्रवाह रुका सा भासित है |
मैं ख़म ठोंके हूँ खड़ा मगर आधार अपरिचित लगता है ||
परिचय कैसे हो जीवन से, कैसे माटी सौंधी सी महके |
कब बूंद पड़ेगी इस तृषित धरा पर, सब सूखा-सूखा लगता है ||
मैं चलूँ यहाँ से या रुंकू यहीं पर, मन रोक-रोक देता मुझको |
कदम आवारा रखता हूँ, यह उहा- पोह रहता है ||
तत्क्षण सोचूं जीवन में, जीते-जी क्यों भटकूँ निर्जन में |
आँख मूंद लूँ राहों से, चौराहा भ्रामित करता है ||
क्यों अबूझ-अधूरा लेख करूँ, करूँ फैसला तोड़ कलम दूँ |
हाथ उठाता लिखने को, पर हाथ कांपता लगता है ||
गड़बड़ है सब द्रश्यों की, क्या द्रश्य मेट दूँ आँखों से |
आस किरण बस बाकी ये, पलक-ओट सहारा दिखता है ||
बेकली-बैचेनी बस क्षण-भर है, जीवन को क्षण-क्षण थामे हूँ |
क्षण-क्षण, क्षण दर क्षण जाता है,  क्षण-क्षण,  क्षण-भंगुर लगता है ||
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atul, radhaswami !




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