एक सभ्य आयाम और उजड़ गया |
एक दीन और बिगड़ गया |
कर्म-कर्म मेरा कर्म,
बन के शर्म-शर्म बिखर गया |
टटोलता रहा स्वंय को, घटना चक्र के बाहर भी ,
शायद,
जलने को बाकी है मेरा बुत अभी भी ,
कि
रोंया- रोंया सिहर गया |
ढूँढता रहा दर्पण मिले ,
साथ में हो बिम्ब लिए ,
देख सकें स्वंय को ,
कि,
चेहरा- मोहरा कैसा उधड़ गया |
कैसे आधुनिक कहूँ ,
कैसे सभ्य मैं रहूँ ,
नव-सभ्यता को थामते ही,
हाथ कंधे से उखड गया |
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अतुल, राधास्वामी !
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