और निगाह को आकर दिया |
आज विचारा "माता" होतीं,
और भाव को विश्राम दिया |
फिर, ठहरे जल में पत्थर फेंका,
और लहर्रों को आयाम दिया |
जीवन एक यात्रा है संगदिल,
और सराय भी जीवन ये |
यहाँ मिलते हैं बिछड़े-बिछड़े ,
और बिछड़ते मिल-मिल के |
साथ रहा न सदैव किसी का ,
और छाया का भी आकार गया |
मैं भी आया बसने इस घर में,
और सामान पसार दिया |
धीरे-धीरे कुछ-कुछ सूझा,
स्वंय से पूछा , स्वंय को बूझा ,
और स्वंय को जान गया |
पांव सिकोड़े , हाथ को झाडा ,
और आँगन बुहार दिया |
दूर क्षितिज पर दृष्टि डाली ,
उदय-अस्त की बात भुला दी,
और बंद आँख कर बैठ गया |
--------------
राधास्वामी ! अतुल
No comments:
Post a Comment