Sunday, November 14, 2010

भावना

भावना ही तो है ,
अस्तित्व नहीं  कोई , संरचना  नहीं ,
मगर कारण है , रचना का -सृष्टि का |
भावना ही तो है ,
मगर कारण है , संहार का- विनाश का |
तो , अपने अंतर्मन को टटोलकर देखो तो ,
अंकुरित भावना को ,
हो सकती है कारण ,संहार का- सृष्टि का |
तो जरुरी है  हम करें प्रार्थना,
हे ! मन दर्पण,  हे !अंतर्मन 
भावना ही ले जा सकती है ,
हमें ईश्वर की गोद तक ,
और यही बनाती है , हमें अपना संहारक |
यही रचाती है सलौने राम का आँगन ,
यही बनाती है मन को रावण |
तो , हे सतगुरु दयाल !
मैं करता हूँ तेरी अराधना ,
और कर चरण आचमन 
करता हूँ समर्पित भावना ,
हे सतगुरु ! तू नियामक बनो ,
ताकि , मेरी भावना  तेरा रंग ले ,  रूप  ले ,
तेरी चरण धूलि से आकार ले ,
और बिसार कर अपने आप को -
तुझ में ही डोले -मस्त होले |
फिर  न कोई सृष्टि हो ,
जिससे फिर न कोई विनाश हो ||
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राधास्वामी ! अतुल 



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