Thursday, October 1, 2015

धरम की धारणा
धरम की धारणा ने धरण ये धार लिया है,
कि ------ तेरा “तू” है,
और ----- मेरा “मैं” है,
जबकि होना यह था,
कि ------ न तेरा “तू” है,
और ----- न मेरा “मैं” है,
जिधर, देखो उधर विभ्रम है,
अरे भ्रम को निकालना ही तो धरम है,
जो धारणा थी, शांत-चित्त स्थिर हो बैठने की,
“आपे” को खोजने की,                                                   
अंतर मे पैठने की,
लेकिन,   
भुलावा, बहिर्मुखता लिए बैठा है,
अशांत चित्त, अस्थिर मन-बुद्धि
और आपस का झगड़ा, सारी कहानी कहता है,
अरे, ईश्वर “एक” है,
“एक” होने में ही शांति है, स्थिरता है,
उस “एक” को ही तो ढूंढना है,
इसीलिए तो शांत होना है,
स्थिर होना है,
और अंतर में पैठना है,
“निजता” को पाना है, “निजघर” पहुँचना है,
इस “धारणा” का धरण ही तो धरम है,
“धर-मम” इसमें कैसा भरम है |
राधास्वामी, अतुल कुमार मिश्रा,
मोबाइल 9460515371
369, कृष्णा नगर, भरतपुर, राजस्थान -321001

Sunday, September 13, 2015

शीर्षक -उधेड़बुन 
पल-छिन , पल -छिन  बीतता  है दिन ,
दिन व दिन  बीतता  है दिन। 
तू चाहे तो भी ,
और न चाहे  तो भी ,
अतुल कुमार मिश्रा
दिन को बीतना  है , बीतता है दिन ,
तू क्यों थकता  है ,
तू क्यों रुकता है ,
पल भर ही हंसी -ख़ुशी है ,
पल भर ही दुःख की घड़ी  है, 
घड़ी घड़ी कर बीतता  दिन ,
पल-छिन , पल -छिन  बीतता  है दिन ,
दिन व दिन  बीतता  है दिन। 
पल में कुदरत की मेहर है ,
पल में काल का कहर है ,
जो वर्तमान  की बाती है ,
वो कल  भूत की  थाती है, 
भविष्य की आशंकाओं  को ,
क्यों रहा है ----गिन ,
पल-छिन , पल -छिन  बीतता  है दिन ,
दिन व दिन  बीतता  है दिन। 
दिन व दिन की कीमत , कहाँ कर छुपी है ,
ये बात , कब तूने  समझी  है ,
कब खुद से कही है ,
दिनों की दूरी  में ---------
एक दिन को जन्मा , एक दिन को मरेगा ,
क्या आशय है तेरा , किस धारणा को धरेगा ,
या सांसो  की रवानगी को ,
रहता रहेगा बस-------गिन ,
पल-छिन , पल -छिन  बीतता  है दिन ,
दिन व दिन  बीतता  है दिन । 
        ********
radhaswami !

Wednesday, August 15, 2012

देशभक्ति 
देशभक्ति,
न तो स्वाभाव है,
न आदत,
न लाचारी, न मज़बूरी |
इसमें न तो ये जमीन आती है,
न ये लोग आते हैं,
न ही ये वृक्ष, मकान, आँगन, 
न नदी-नाला, पहाड़, समतल मैदान,
कुछ भी नहीं-
स्वरूपित नहीं करता इसे,
फिर भी]
यह है एक अहसास -
मेरा देश है, मेरा है देश,
मेरे पास,
कितना पास ?
शायद, सबसे ज्यादा पास ||
-------------
राधास्वामी ! - अतुल मिश्र 



Tuesday, April 12, 2011

विजेता मिस्त्र


मिस्त्र की  ताकत बने
हाथ जो सब साथ थे |
मुठ्ठियाँ सब कस सकीं,
उंगलियां सब साथ थीं ||
वजीफा है अब आँखों की रौनक,
रौनकें अब आसान हैं |
देखती निगाहें अब तुम्हें हैं,
बात ये मन में बसा लो |
जो ताकत अब तक थी हाथ में,
उसे अब पैरों में समा लो |
बिखरना अब न है यहीं पर,
कदम अब आगे बढ़ा लो |
चमक जो है आँखों में पैदा,
उसे सम्मुख अब सजा लो |
कदम – ब –कदम बढ़ना है आगे,
क़दमों को ताकत बना लो |
जीतते हैं जंग कैसे थोड़ा ये हमको भी सिखा दो ||
अतुल कुमार मिश्र “राधास्वामी”

कचोट

कचोट एक मन उठी,
कसक एक मन उठी |
क्यों लुट गया वो देश पर,
क्यों लुट गया था वो देश पर,
अनाम शहीद, बेफिकर, बेजिकर |
जबकि एक ये,
क्यों लूटता गया देश को,
कैसे लूट सका देश को |
नामी, नामचीन,
सांप एक आस्तीन,
थी सबको खबर,
था जिकरों में जिकर,
मगर सभी बेपरवाह- बेखबर,
मूढ़ बने आँख मूंदकर |
सो  
कचोट एक मन उठी,
कसक एक मन उठी |
क्यों मूक मैं, क्यों मूक वो,
हे! अंतर मन मुझे झिंझोड़ दो |
देश मेरा, मैं देश को,
मन अंतर अहसास दो |
आत्म दो, विश्वास दो,
ये मन अंतर साहस दो |
पूछ संकू आंखों में आँखे डालकर,
जबाब दो, जबाब दो ||
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राधास्वामी ! अतुल 

Sunday, November 14, 2010

भावना

भावना ही तो है ,
अस्तित्व नहीं  कोई , संरचना  नहीं ,
मगर कारण है , रचना का -सृष्टि का |
भावना ही तो है ,
मगर कारण है , संहार का- विनाश का |
तो , अपने अंतर्मन को टटोलकर देखो तो ,
अंकुरित भावना को ,
हो सकती है कारण ,संहार का- सृष्टि का |
तो जरुरी है  हम करें प्रार्थना,
हे ! मन दर्पण,  हे !अंतर्मन 
भावना ही ले जा सकती है ,
हमें ईश्वर की गोद तक ,
और यही बनाती है , हमें अपना संहारक |
यही रचाती है सलौने राम का आँगन ,
यही बनाती है मन को रावण |
तो , हे सतगुरु दयाल !
मैं करता हूँ तेरी अराधना ,
और कर चरण आचमन 
करता हूँ समर्पित भावना ,
हे सतगुरु ! तू नियामक बनो ,
ताकि , मेरी भावना  तेरा रंग ले ,  रूप  ले ,
तेरी चरण धूलि से आकार ले ,
और बिसार कर अपने आप को -
तुझ में ही डोले -मस्त होले |
फिर  न कोई सृष्टि हो ,
जिससे फिर न कोई विनाश हो ||
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राधास्वामी ! अतुल 



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Monday, July 19, 2010

सजावट

आज रचाए घर के कोने,
और निगाह को आकर दिया |
आज विचारा "माता" होतीं,
और भाव को विश्राम दिया |
फिर, ठहरे जल में पत्थर फेंका,
और लहर्रों को आयाम दिया |
जीवन एक यात्रा है संगदिल,
और सराय भी जीवन ये |
यहाँ मिलते हैं बिछड़े-बिछड़े ,
और बिछड़ते  मिल-मिल के |
साथ रहा न सदैव किसी का ,
और छाया का भी आकार गया |
मैं भी आया बसने इस घर में,
और सामान पसार दिया |
धीरे-धीरे कुछ-कुछ सूझा,
स्वंय  से पूछा , स्वंय को बूझा ,
और स्वंय को जान गया |
पांव  सिकोड़े , हाथ को झाडा ,
और आँगन  बुहार दिया |
दूर क्षितिज पर दृष्टि  डाली ,
उदय-अस्त की बात भुला दी,
और बंद आँख कर  बैठ  गया |
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राधास्वामी ! अतुल 

Friday, July 16, 2010

अवसर

http://www.cleanenergyworldnews.com/wp-content/uploads/2012/08/Bug-River-Poland.jpgनदी खुद बहकर पहुंची थी, दरवाजे । 
कि,
सींच लूँ , मैं आँगन के पौधे। 
मगर,
क्यों कर,  स्पर्श  करूँ
बहकर आया  पानी  
जबकि,
आँगन में होनी थी, वर्षा अभी
अब,
आँगन भी वही था,
आकाश भी वही था,
और
वही थी आस |
किन्तु,
अब नदी नहीं थी,  दरवाजे के पास |
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राधास्वामी ! अतुल